शनिवार, 27 जून 2015

                                 उपत्यका का अंकुर

                                                                                                                डॉ० ललित शुक्ल, दिल्ली

          वहॉ चलते हैं जहॉ विन्धायचल चट्टानों के वक्ष पर अमृत की धारा वाले  झरनों की स्रोतवाहिनी माला पहने है । इन पहाडी धाराओं की चाल सर्पिल है । तेज भागतीं है जैसे गन्तव्य जाने की बहुत जल्दी हो ।  व्यस्तता के क्षणों में भी वह गाती चलती है । आदमी भी प्रकृति के साथ गाता है । गाता क्या है , दिल खोलकर रख देता है । सुख-दुख के पुलिनों से आलिंगीत जीवन धारा भी कुछ ऐसे ही चलती है पर गॉव् की धरती पगडंडियों पर ि‍थरकती है । गॉव की बोली में दिल बोलने लगता है । और हरियाली की जिम्मेदारी नीम , पीपल , आम , जामुन और बरगद आदि पर है । अतीत के खण्डहरों से कवि संगीत टेरता है । वर्तमान का कवि - रचनाकार मूक पहाड को सचेत करता है ।फागुन सौरभ का भण्डार लुटा रहा है पर जानने वाले इस बात को जानतें हैं ,इस रहस्य को पहचानतें हैं । 
            यह वह दुनिया है , जहॉ पलाश के लाल लाल बादल सक्रिय रहतें  है । कवि की दृष्िट की सक्रियता की कर्मशाला से एक झॉकी ऑकती है , एक छवि उरेहती है । लाल लाल पहाड़ी पर मशालों की दीपमाला दीपित है । '' पी कहॉ '' की अनुगूॅज से वातावरण रोमॉचित हो उठता है ।टप -टप गिरते हुये महुआ के फूलों की रसीली ओर नशीली गंध दिग दिन्त नाचनें महकने लगता है । कवि की धरती को रसमय बनानेवाली पर्वत-पुत्रियॉ करुणावती , बेलन '(मुरला) , सिरसी और तमसा अपनी अपनी धाराओं में कहानी कहती हुई न जाने कब से बह रहीं हैं । यही है वो अंचल जो लोक मानस में आहलाद की उमंग भरता है । प्रकृति की इसी रम्यस्थली में डॉ0 जयशंकर त्रिपाठी जी का बचपन बीता था । यहॉ यह कहना कदाचित अप्रासंगिक हो कि जन्म की तिथ्िा अगहन कृष्ण 12 संवत्  1985 थी । सकूनत में बेदौली , पोस्ट-बेदौली (भारतगंज) इलाहाबाद का नाम आता है ।
              परिवार में संस्कृत का पठन पाठन कई  पीढियों से चला आ रहा है । जीवन के अनेक कष्टों को झेलकर , विपदाओं के तूफानों से लड़तें हुये यह संस्कृत जीते जी कायम रहा । जयशंकर जी का साहित्य-सृजन वही से रस पाता रहा है । प्रेरणा का उर्वरक वहीं से हरितिमा देता रहा है । पिता वैयाकरण पं0 छविनाथ जी त्रिपाठी की पुरोहिती उन्हें वंश परम्परा से ही मिली थी । पौरीहित्य परिवार जिस संस्कृति और परम्परा का विधान करता है उसमें कलाकार और मौलिक रचनाकार की अस्िमता के लिए बहुत कम गुंजाइस रहती है । जयशंकर जी इस बात के अपवाद हैं । अपनी अनेक सीमाओं के बावजूद भी वह तेजस्िवता को आदर और बहुमान देतें हैं । लोभ की जिस पोली जमीन पर पौरोहित्य की कच्ची इमारत  खड़ी होती है , वह उससे बहुत आगे निकल गये हैं । पितामह पं0 रमापति त्रिपाठी और प्रपितामह पं0 भैरव प्रसाद त्रिपाठी ज्येतिष और तंत्र की गहरी जानकारी के लिए अपने क्षेत्र में विश्रुत थे । पंचायती निरंजनी अखाड़ा द्वारा संचालित  पाठशाला में जयशंकर जी के पिता अध्यापन करते थे ।उन्होनें व्याकरण से मध्यमा परीक्षा उत्तीर्ण की थी । कर्मकाण्ड ,व्याकरण ,ज्योतिष औश्र तंत्र की आनुवांश्िाकता की उपज के रुप् में जयशंकर जी का व्यक्ितव हमारे सामने आता है । उनकी मॉं श्रीमती जगवन्ती देवी कुलीन परिवार की थी । उन्हें आन-बान और मर्यादा अपने पिता-पक्ष से ही मिली  थी । जयशंकर जी बतलातें हैं कि उनके पिता अत्यन्त सात्िवक ,सत्यनिष्ठ ,ऋष्िा जीवन के आदेशों से अनुप्रेरित थे । उनमें रुढियों की जकड़बन्दी न थी ।---------क्रमश:--

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