इस चित्र में पूज्य डॉ0 जयशंकर त्रिपाठी के साथ प्रोफेसर के0 डी0 वाजपेई "रचनाकार डॉ0 जयशंकर त्रिपाठी" का विमोचन करते हुए -
पंडितजी ने निबंध , नाटक , कवितायेँ आदि तो लिखा ही साथ ही साथ कहानियाँ भी लिखी । कहानियाँ भी कपोल - कल्पित नहीं बल्कि पौराणिक व् ऐतिहासिक । उन्हीं कहानी संग्रहों में से एक कहानी है ।
--समाधी की भेंट--
"यही स्त्री है जिसनें आखेट को मारा है "। सुनकर घोड़े पर बढ़ता हुआ माढव्य का राजकुमार कड़क कर बोला ---'बंदी बनाओ ' ।
नीचे कलकल स्वर में शरद कालीन निर्मल जलवाली नदी तीव्र गति से ढुलक रही थी । दोनों वहीँ पर हरे -बहरे वृक्ष ,बाँस , लताएँ , पच्छिमी समुद्र की ओर जाते हुये को हवायें नतमस्तक होकर नमस्कार कर रहे थे । आकाश में पीले , लाल बादलों के शील खण्ड समुद्र में तैर जैसे रहे थे । तट के पास ही धनुष बाण लिए एक युवती एक चट्टान के पास खड़ी हुई मरे हुए सिंह की ओर दृष्टि लगाये थी । उसी समय हरे - भरे वृक्षों के झुरमुट से घोड़ों पर चढ़े तलवार , भाले , धनुष बाण लिए बहुत से सवार बढ़े और स्त्री को बंदी बना लिया । एक बूढ़े सवार ने कहा - ' क्या स्त्री को बंदी बनाते हो ?'
राजकुमार जोरदार शब्दों में उठा -" एक क्षत्रिय राजकुमार के आखेट पर अधम जाति की जंगली स्त्री अपने बाण चलायें और उसका आखेट करें लें , यह बहुत बड़ा अपमान है । ठीक है बंदी रक्खो , फिर विचार कर लेंगे ।"
ध्वज अभिनन्दन समाप्त होने ही वाला था , आकाश के बादल उसके अभिनन्दन में उमड़ घुमड़ कर तांडव कर रहे थे । सहसा बारह साल का बालक अभिवादन करते हुये बोला ' हे देशाधिपति । मुझे भी ध्वज अभिनन्दन की आज्ञा हो ।'
' इस कार्य के लिये आज्ञा लेने की क्या आवश्यकता ?'
नहीं आवश्यकता है ,जब तक नहीं मेरी माता बन्दिनी है मैं ध्वजार्चन कैसे करूँ ?
"कौन माता बन्दिनी है ?"
'मेरी माता ।'
'क्यों ?'
अन्याय से
किसका अन्याय ।
इतने में एक सरदार आगे बढ़ा और बोला ---'राजकुमार जिसने आपके आखेट का वध किया था , और जो आपकी आज्ञा से बन्दिनी हुई , वह स्त्री इसी की माता है । वह आपके सेना नायक की प्रणयिनी और श्रृंगल राज्य के पर्वतियों की राजकुमारी है । सेना नायक की मृत्यु हो जाने पर वह विधवा हो गई तथा आपकी हताहत सेना के साथ आपके राज्य में चली आई और जंगल में रहकर जीविका निर्वाह करती है । सेना नायक के द्व़ारा प्रसूत यह उसी का लड़का है और यह ठीक भी है कि इसकी वीर माता बन्दिनी है तब यह वीर पुत्र ध्वजा - अभिनन्दन कैसे करे ?'
क्या कहा सरदार ? मेरे सेना नायक की वीर वधू मेरी माता मेरे द्वारा बन्दिनी बनाई गई ?
'हाँ ' ऐसी ही बात है राजकुमार ।
तो बन्धन -मुक्त मेरी माता का शीघ्र अभिनन्दन होना चाहिए ।
माढव्य और श्रृंग राज्य की वर्षो बाद पुनः मुठभेड़ होने जा रही है । राजकुमार मुझे सेनापति का भार दे रहें है । माता की क्या आज्ञा है ?
कर्तव्य का पालन करना चाहिए , मैं और कुछ नहीं चाहती , यह मेरे पुत्र का देश है और वह पिता - माता का देश का देश । मैं किसी के जय - पराजय से प्रसन्न नहीं हूँ , हाँ दोनों की कर्तव्य निष्ठता देखकर मुझे दोनों और से प्रसन्नता है ।
वह सब तो ठीक है किन्तु पुत्र की विजय करानें के लिये माता को भी तलवार लेकर चलना होगा ।
क्या वीर पुत्र विजय करने में असमर्थ है ?
अवश्य क्योंकि वह तो अपने युवा पिता , माढव्य राज्य के सेना नायक की समाधि को रक्तधारा से स्नान कराने चलेगा और माता उसके स्थान पर राष्ट्र की विजय करायेंगी ।
यह सुनकर माता शील ने कहा -'मैं अपनी मातृभूमि में कौन सा उपहार प्राप्त करने चलूंगी , केवल प्रणाम , मातृभूमि के देशद्रोह विरह - पर्व का स्मरण करने ।'
नहीं माता । नहीं पुत्र को विजय प्रसाद देने के लिए पुत्र के द्वारा पिता की समाधि पर अर्चना करने के लिए चलना होगा । अभी राजकुमार भी अपनी विनय वाणी लेकर आने वाले है ।
माता बहुत देर तक मौन याही , प्रातःकाल का उपक्रम जंगल में चारो ओर गूंजने लगा ।भगवान हिरण्य गर्भ सूर्य का रथ चहल -पहल के साथ एकान्त प्रान्त आकाश में बढने लगा । बहुत देर के विचार- विमर्श के बाद माता ने कहा - अच्छा ठीक है , शिव पार्थिव को नमस्कार करो और जाओ राजकुमार को आने से रोक दो ।
बड़े घोर संग्राम के बाद विजय का सन्देश मातृभूमि को सुनानें सेना के प्रमुख माढव्य राज्य के द्वार पर पहुंचे - 'विजयते राजकुमार ।' की ध्वनि होने लगी । राजकुमार ने आगे बढ़कर कहा- 'माता और सेनापति कहाँ है ? सैनिको ने कहा - वो तो शिव पार्थिव की ओर गये ।'तब लौटो , माता के द्वारा विजय अभिनन्दन होगा । सभी शिव - पार्थिव की ओर चलें ।' कहते हुए रक्त से सना हुआ राजकुमार सभी सैनिको के साथ वनस्थित शिव पार्थिव की ओर चले ।
सभी नजदीक पहुँच रहे थे , इतने में माता - पुत्र की आवाज आई -' ओह विजय की तत्क्षण ही अश्रुओं से धो उठी । शोक ---------------- क्या है ? क्या है ? कहकर सभी तडफडाते हुए निकट पहुँच गए ।
युद्ध के घावो से बेचैन माता शिव पार्थिव के पास समाधिस्थ हो चुकी थी , सेनाधीश के साथ सभी की अविराम अश्रुधार बह चली ।
भगवान भास्कर के रथ में दो घंटे की देर थी , उत्तर रात्रि के उषाकाल की बेला में सेनापति माता की समाधि के बोल रहा था ----------इस बार मात -पितृ दोनों कुलों के रक्त से भुथल राज्य में अपने राष्ट्र की विजय पताका आषाढ़ मांस के वीर बुंद की तर करूँगा ।
जैसे प्रतिध्वनि सी होने लगी - तो क्या चाहते हो ?
माता का आशीष प्रसाद ।
माता का प्रसाद था कब नहीं ?
कुछ देर शान्ति छाई रही पुनः शिव पार्थिव की ओर से जैसे ध्वनि आई - विजय पताका ही तर होगी ।
और जो आज्ञा दी जाय ।
आज्ञा क्या है कुछ नहीं ।
राजकुमार जोरदार शब्दों में उठा -" एक क्षत्रिय राजकुमार के आखेट पर अधम जाति की जंगली स्त्री अपने बाण चलायें और उसका आखेट करें लें , यह बहुत बड़ा अपमान है । ठीक है बंदी रक्खो , फिर विचार कर लेंगे ।"
ध्वज अभिनन्दन समाप्त होने ही वाला था , आकाश के बादल उसके अभिनन्दन में उमड़ घुमड़ कर तांडव कर रहे थे । सहसा बारह साल का बालक अभिवादन करते हुये बोला ' हे देशाधिपति । मुझे भी ध्वज अभिनन्दन की आज्ञा हो ।'
' इस कार्य के लिये आज्ञा लेने की क्या आवश्यकता ?'
नहीं आवश्यकता है ,जब तक नहीं मेरी माता बन्दिनी है मैं ध्वजार्चन कैसे करूँ ?
"कौन माता बन्दिनी है ?"
'मेरी माता ।'
'क्यों ?'
अन्याय से
किसका अन्याय ।
इतने में एक सरदार आगे बढ़ा और बोला ---'राजकुमार जिसने आपके आखेट का वध किया था , और जो आपकी आज्ञा से बन्दिनी हुई , वह स्त्री इसी की माता है । वह आपके सेना नायक की प्रणयिनी और श्रृंगल राज्य के पर्वतियों की राजकुमारी है । सेना नायक की मृत्यु हो जाने पर वह विधवा हो गई तथा आपकी हताहत सेना के साथ आपके राज्य में चली आई और जंगल में रहकर जीविका निर्वाह करती है । सेना नायक के द्व़ारा प्रसूत यह उसी का लड़का है और यह ठीक भी है कि इसकी वीर माता बन्दिनी है तब यह वीर पुत्र ध्वजा - अभिनन्दन कैसे करे ?'
क्या कहा सरदार ? मेरे सेना नायक की वीर वधू मेरी माता मेरे द्वारा बन्दिनी बनाई गई ?
'हाँ ' ऐसी ही बात है राजकुमार ।
तो बन्धन -मुक्त मेरी माता का शीघ्र अभिनन्दन होना चाहिए ।
माढव्य और श्रृंग राज्य की वर्षो बाद पुनः मुठभेड़ होने जा रही है । राजकुमार मुझे सेनापति का भार दे रहें है । माता की क्या आज्ञा है ?
कर्तव्य का पालन करना चाहिए , मैं और कुछ नहीं चाहती , यह मेरे पुत्र का देश है और वह पिता - माता का देश का देश । मैं किसी के जय - पराजय से प्रसन्न नहीं हूँ , हाँ दोनों की कर्तव्य निष्ठता देखकर मुझे दोनों और से प्रसन्नता है ।
वह सब तो ठीक है किन्तु पुत्र की विजय करानें के लिये माता को भी तलवार लेकर चलना होगा ।
क्या वीर पुत्र विजय करने में असमर्थ है ?
अवश्य क्योंकि वह तो अपने युवा पिता , माढव्य राज्य के सेना नायक की समाधि को रक्तधारा से स्नान कराने चलेगा और माता उसके स्थान पर राष्ट्र की विजय करायेंगी ।
यह सुनकर माता शील ने कहा -'मैं अपनी मातृभूमि में कौन सा उपहार प्राप्त करने चलूंगी , केवल प्रणाम , मातृभूमि के देशद्रोह विरह - पर्व का स्मरण करने ।'
नहीं माता । नहीं पुत्र को विजय प्रसाद देने के लिए पुत्र के द्वारा पिता की समाधि पर अर्चना करने के लिए चलना होगा । अभी राजकुमार भी अपनी विनय वाणी लेकर आने वाले है ।
माता बहुत देर तक मौन याही , प्रातःकाल का उपक्रम जंगल में चारो ओर गूंजने लगा ।भगवान हिरण्य गर्भ सूर्य का रथ चहल -पहल के साथ एकान्त प्रान्त आकाश में बढने लगा । बहुत देर के विचार- विमर्श के बाद माता ने कहा - अच्छा ठीक है , शिव पार्थिव को नमस्कार करो और जाओ राजकुमार को आने से रोक दो ।
बड़े घोर संग्राम के बाद विजय का सन्देश मातृभूमि को सुनानें सेना के प्रमुख माढव्य राज्य के द्वार पर पहुंचे - 'विजयते राजकुमार ।' की ध्वनि होने लगी । राजकुमार ने आगे बढ़कर कहा- 'माता और सेनापति कहाँ है ? सैनिको ने कहा - वो तो शिव पार्थिव की ओर गये ।'तब लौटो , माता के द्वारा विजय अभिनन्दन होगा । सभी शिव - पार्थिव की ओर चलें ।' कहते हुए रक्त से सना हुआ राजकुमार सभी सैनिको के साथ वनस्थित शिव पार्थिव की ओर चले ।
सभी नजदीक पहुँच रहे थे , इतने में माता - पुत्र की आवाज आई -' ओह विजय की तत्क्षण ही अश्रुओं से धो उठी । शोक ---------------- क्या है ? क्या है ? कहकर सभी तडफडाते हुए निकट पहुँच गए ।
युद्ध के घावो से बेचैन माता शिव पार्थिव के पास समाधिस्थ हो चुकी थी , सेनाधीश के साथ सभी की अविराम अश्रुधार बह चली ।
भगवान भास्कर के रथ में दो घंटे की देर थी , उत्तर रात्रि के उषाकाल की बेला में सेनापति माता की समाधि के बोल रहा था ----------इस बार मात -पितृ दोनों कुलों के रक्त से भुथल राज्य में अपने राष्ट्र की विजय पताका आषाढ़ मांस के वीर बुंद की तर करूँगा ।
जैसे प्रतिध्वनि सी होने लगी - तो क्या चाहते हो ?
माता का आशीष प्रसाद ।
माता का प्रसाद था कब नहीं ?
कुछ देर शान्ति छाई रही पुनः शिव पार्थिव की ओर से जैसे ध्वनि आई - विजय पताका ही तर होगी ।
और जो आज्ञा दी जाय ।
आज्ञा क्या है कुछ नहीं ।