गुरुवार, 5 सितंबर 2013

पूज्य पिताजी पर लिखी अपनी एक पुरानी  पोस्ट आज शिक्षक दिवस के अवसर पर पुनः दोहराना चाहूँगा " जो उम्र भर पढ़ाते  रहे और पढ़ते रहे लोग उनसे".........................

                   परम पूज्य  डॉ0 जयशंकर त्रिपाठी  को जून सन 1990 में ईश्वर शरण डिग्री कालेज ,इलाहाबाद से सेवानिवृत होने के बाद हमने कभी नहीं देखा कि उनकी दिनचर्या में कोई परिवर्तन हुआ ।सिर्फ एक कालेज जाना छोड़कर बाकी सभी दिनचर्या उनकी यथावत रही ।बल्कि उनके पास आने वाले लोगों के स्वभाव व दिनचर्या बदल जाते थे ।अध्यात्म सम्बन्धी प्रवचन तो नहीं होता था लेकिन आध्यात्मिक चिंतन मनन होता रहता था । नौजवान साथियों को उनके पास आकर सुकून मिलता था , अपनापन मिलता था ।घर के बुजुर्ग की तरह से उनसे अपनी परेशानियाँ कहते थे और सुख दुःख बांटते थे व् कुछ नया करने से पहले उनसे राय लेते थे । पंडितजी पढ़ने पढ़ाने के पुराने व्यसनी थे । सुबह के अखबार के साथ साथ चाय पान उनकी पुरानी आदत थी , शायद हम लोगों के जन्म से पहले की । अखबार के छोटी सी छोटी खबर पर उनकी पैनी निगाह रहती थी ।खबरों को पढने के बाद उस पर चर्चा, सुबह के समय जो भी आगंतुक आते उनसे उन विषयों पर चर्चा हो जाती । वे अखबारों की बातों को चर्चा तक ही सीमित रखते थे और उसके बाद वे अपने दुसरे नित्य कर्मों में  लग जाते थे । पंडित जी किसी एक विषय के ज्ञाता या विद्वान नहीं वरन हिंदी संस्कृत के अतिरिक्त भूगोल , समाजशास्त्र और ज्योतिष आदि पर भी अधिकार रखते थे । इतिहास में उनकी बड़ी रुचि थी । इतिहास सम्बन्धी पंडित जी की बातें बड़ी प्रमाणिक हुआ करती थी , जिसे लोग आज भी याद करते है ।इतिहास लेखकों में वे अन्य लोगों के साथ भगवतशरण उपाध्याय जी के नाम की चर्चा अवश्य करते । ज्योतिष में उन्हें पांडित्य प्राप्त था,लेकिन उन्होंने इसे कभी व्यक्त नहीं किया । जिसे जो बता दिया वो सत्य हुआ ,लोग आज भी याद करतें है । हिन्दी साहित्य में उनका अमूल्य योगदान है , उनकी चर्चा के बिना चर्चा अधूरी रहेगी ।
                        लिखने पढने में इतना मगन हो जाते थे कि गर्मी और ठण्डी का ज्ञान न रहता । जिस कमरें में हम आप बिना बिजली के नहीं बैठते वहाँ वे अपनी लेखनी चलाते थे , खादी की सूती धोती पहनकर । जाड़े में एक सफ़ेद लोई ओढ़े जांघों पर तकिया और तकिया पर कागज कलम  । इन सभी नित्य क्रिया कलापों के दरम्यान कोई मिलने वाला आ जाय तो उससे भी हाल चाल हो जाता था  । परम पूज्य पिताजी  पूर्ण रूप से सात्विक प्रकृति के थे । सुबह शाम की पूजा के पश्चात ही वे भोजन ग्रहण करते थे । पिताजी की इन सभी नित्य क्रिया कलापों का अपनी उम्र में साक्षात्कार किया है । अंतिम समय में मैं पिताजी के साथ ही था । वो दिन भूला नहीं हूँ जब उनकी तबियत ज्यादा ख़राब थी । उस कष्ट के समय में वे संभवतः (ऐसा मेरा मानना है ) अपने प्रिय लोगों के साथ थे । याद है पिता जी की अंतिम चाय । जिसमें डॉ0 के0 एस0 द्विवेदी भाई साहब , श्री अवनीश भईया , शुक्ला जी ,श्री विनोद कुमार (श्री दिनेश कुमार द्विवेदी भाई साहब  के छोटे भाई ) , संजू (जय विक्रम त्रिपाठी )  और मैं उस अंतिम चाय के साक्षी थे । इस चाय पान के कुछ देर पहले श्री कामता भईया , पिताजी के बीमार होने के कारण पूजा करने आये थे , जा चुके थे । अंतिम समय में पिताजी ने हम सब के साथ चाय पी और थोड़ी सी चार चम्मच खिचड़ी । उस दिन माता जी  का तीज  का  व्रत  था  और वो  लोग थके  होने के  कारण सो रहे थे  । रात के  करीब  बारह  सवा  बारह  हो  रहे होंगें  । उस चाय पान के बाद मैं क्या कहूं ,कहने का लिए कुछ बचा ही नहीं । सब कुछ पञ्च तत्व में विलीन ।नश्वर शरीर बचा था , वो अंतिम संस्कार के लिए गाँव ले गये ।

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