वरद हमें दो
भादौं बिता पुनर्नवा औ बरियारी मेंफूल लग गए
अब सब परिपक्व हुई गिरी वन बूटी ।
ज्यों सोने के चँवर
ढुल पड़े नन्हें नन्हें
ऐसे ही अब
लगा कुआर ,धान की बाले फूटीं ।
और कड़ी है रम्य
इधर ग्राम्या -सी मुग्धा
यह किसान -पणिका खेत की शान्त वधूटी ।
पहन धवल टोपियाँ देश के सेवक जैसे
फूटे हैं ये काश ,
झंडियाँ जैसे फहरी ।
और इधर पड़ रहे किसी राजा के पहरे ,
प्रतिबिम्बित तालाब ,नदी में प्रतिहार -से
टहल रहे नभ के दरवाजे बादर उजरे ।
सघन हरे ईखों के गहरे खेत लहरते
हवन-धुंआ ही जैसे धरती से हो उठता ।
वन-आँगन में और वेद-उच्चारण करता ,
तालाबों के घाट ,मरालोंवाला जंगल ।
नीलम गच पर गये सजाये -
सुरभि नीर से भरे कलश धरती मंगल के
नीले,उजले ,लालरंग के कमलों के दल ।
वरद हमें दो सदा सुहावन लगाने वाला ,
इधर क्वार के साथ
धरा का परिणय मंगल !
पूज्य आचार्य डॉ0 जय शंकर त्रिपाठी द्वारा रचित
लाजवाब कविता | लेखनी की जादूगरी इसे कहते हैं | बधाई |
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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It's nice to visit a blog that's dedicated to a teacher of such stature!
जवाब देंहटाएंThanks for sharing his poetry!!!